एक माँ क्यों नहीं चाहती कि उसकी संतान लड़की हो, जबकी वो खुद एक लड़की है?

शीर्षक: एक माँ क्यों नहीं चाहती कि उसकी संतान लड़की हो, जबकी वो खुद एक लड़की है?

विषय: “एक मां क्यों नहीं चाहती कि उसकी लड़की हो, जबकि वह खुद एक लड़की है”

प्रस्तावना

भारत जैसे समाज में, जहाँ नारी का सम्मान और शक्ति की पूजा की जाती है, वहीं एक अजीब विरोधाभास भी देखने को मिलता है। कई माताएं बेटियों को जन्म देने से हिचकिचाती हैं। यह लेख उस मानसिकता को गहराई से समझने की कोशिश करेगा कि क्यों कुछ मांएं बेटियों को जन्म देने में संकोच करती हैं, जबकि खुद भी वे एक महिला हैं।

हम इस लेख में उन सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों का विश्लेषण करेंगे, जो इस विचारधारा को जन्म देते हैं। इसके साथ ही, हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि समय के साथ कैसे एक सकारात्मक बदलाव लाकर इस सोच को बदला जा सकता है। इस यात्रा में हम कुछ प्रसिद्ध हस्तियों की प्रेरक बातों को भी शामिल करेंगे, जो इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण हैं।


1. पितृसत्तात्मक समाज का प्रभाव

पितृसत्तात्मक समाज में पीढ़ियों से एक ऐसी धारणा बन गई है कि लड़का घर की बुनियाद और नाम का वाहक होता है। इसके कारण, एक मां भी अपने परिवार में लड़के का जन्म चाहती है, ताकि परिवार की प्रतिष्ठा और सामर्थ्य बनी रहे।

पितृसत्ता में यह धारणा बनी रहती है कि लड़का अपने परिवार का ख्याल रखेगा, संपत्ति का मालिक होगा और बुढ़ापे में माता-पिता का सहारा बनेगा। इस सामाजिक संरचना में नारी को पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से कमजोर माना गया है। इस सोच का असर परिवार की महिलाओं पर भी होता है, जो अनजाने में इस मानसिकता को अपना लेती हैं।

महात्मा गांधी ने कहा था, “एक समाज की सभ्यता का आकलन इस बात से होता है कि वह अपनी महिलाओं के प्रति कैसा व्यवहार करता है।” इस विचारधारा को आज भी भारतीय समाज में पितृसत्ता से चुनौती मिलती है, और यही पितृसत्ता कई माताओं की सोच को प्रभावित करती है।


2. दहेज प्रथा का भय

दहेज प्रथा भारतीय समाज में आज भी कई लोगों के लिए एक बड़ी चिंता बनी हुई है। बेटी के जन्म के समय से ही माता-पिता उसके विवाह में दहेज देने की चिंता से घिरे रहते हैं। इसी चिंता का असर मां की मानसिकता पर भी पड़ता है, जो बेटी के जन्म के बारे में नकारात्मक विचार उत्पन्न कर सकता है।

यह प्रथा न केवल आर्थिक रूप से माता-पिता पर बोझ डालती है बल्कि उन्हें मानसिक रूप से भी चिंतित करती है। दहेज प्रथा का कारण बनता है कि माता-पिता बेटियों को लेकर स्वयं को कमजोर और असहाय महसूस करते हैं। इसके कारण कई माताएं अनजाने में अपने परिवार में बेटी का जन्म नहीं चाहतीं।

जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “कोई भी देश तब तक सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि उसकी महिलाएं अपने कर्तव्यों के प्रति आत्मनिर्भर नहीं बन जातीं।” इसका मतलब है कि जब तक महिलाएं स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं होतीं, तब तक इस प्रकार की रूढ़िवादी सोच बनी रहेगी।


3. सुरक्षा की चिंता

बेटियों के प्रति समाज में सुरक्षा की कमी और बढ़ते अपराधों के कारण माता-पिता विशेषकर मां हमेशा अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। आज के समय में आए दिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध, जैसे कि छेड़छाड़, बलात्कार और अन्य हिंसक घटनाएं, माता-पिता को यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि बेटी का पालन-पोषण कठिन हो सकता है।

इस प्रकार की मानसिकता न केवल माता-पिता को बल्कि समाज में अन्य महिलाओं को भी प्रभावित करती है। मां अपनी बेटी के प्रति इस भय को इसलिए महसूस करती है, क्योंकि वह खुद भी एक महिला है और उसने भी समाज में कई कष्टों और कठिनाइयों का सामना किया है।

सुधा मूर्ति का एक उद्धरण है, “यदि हमें समाज को बेहतर बनाना है, तो महिलाओं को सशक्त बनाना आवश्यक है, ताकि वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें।


4. परंपरागत मान्यताओं का दबाव

समाज में पुरानी मान्यताएं और रूढ़िवादी सोच का प्रभाव भी मां की मानसिकता पर गहराई से असर डालता है। बहुत सारे समुदायों में बेटी को एक भार के रूप में देखा जाता है।

कई बार मां खुद भी अपनी बेटी के जन्म को इसी दृष्टिकोण से देखने लगती हैं और उसके जन्म से पहले ही अनावश्यक चिंताओं से घिरी रहती हैं।


5. आर्थिक स्थिति का दबाव

भारत जैसे देश में, विशेषकर निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों में, आर्थिक स्थिति भी बड़ा कारण बनती है। माता-पिता को लगता है कि लड़के के जन्म से परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकता है, जबकि बेटी को आर्थिक रूप से कम प्रभावी माना जाता है। हालांकि, यह धारणा पूरी तरह से गलत है, लेकिन आर्थिक स्थिति का दबाव मां के मानसिकता को लड़के की ओर झुका सकता है।

6. सामाजिक धारणा का प्रभाव

समाज में बेटियों के प्रति जिस प्रकार की नकारात्मक सोच बनी हुई है, उसका असर माताओं की सोच पर भी पड़ता है। मां अपने चारों ओर देखती है कि कैसे समाज में बेटियों का जीवन कठिन होता है।

कस्तूरबा गांधी ने एक बार कहा था, “हमें अपने भीतर की नारी शक्ति को पहचानना होगा और समाज में अपनी जगह खुद बनानी होगी।” यही बात आज की मांओं के लिए भी सही है कि उन्हें समाज के दबावों से ऊपर उठकर अपनी सोच को मजबूत बनाना होगा।


7. बेटियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता

इस मानसिकता को बदलने के लिए जरूरी है कि हम बेटियों के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाएं। बेटियां भी आजकल किसी भी क्षेत्र में कम नहीं हैं और उन्हें बराबरी का हक देने की आवश्यकता है। शिक्षा, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता से ही समाज में बेटियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जा सकता है।


निष्कर्ष

समाज में मां की सोच को बदलने के लिए जरूरी है कि हम बेटियों को शिक्षा, अधिकार और स्वतंत्रता दें। बेटियां भी अपने आप में एक ताकत हैं, जो परिवार और समाज को नया आकार देने की क्षमता रखती हैं। हमें उन्हें सशक्त बनाने की जरूरत है ताकि मां अपने भीतर इस आत्मविश्वास को महसूस कर सके कि उसकी बेटी भी उसकी तरह ही एक आत्मनिर्भर और सम्मानित नागरिक बनेगी।

माया एंजेलो के शब्दों में, “हर स्त्री में शक्ति और क्षमताओं का एक महासागर होता है, बस उसे पहचानने की जरूरत है।” यह विचार समाज में महिलाओं की स्थिति को नई दिशा देता है।

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